कहाँ तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
‘किसान का कोड़ा’ विचारगोष्ठी की रपट.
रपट : बजरंग बिहारी.
इन संगठनों से जुड़े लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार और रचनाकार किसान आंदोलन पर कार्यक्रमों की शृंखला चला रहे हैं। इसी सिलसिले में 11 अप्रैल 2021 को महात्मा फुले की जयंती के अवसर पर ‘किसान आंदोलन के समक्ष चुनौतियां’ ऑनलाइन विचार-गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह आयोजन जोतिबा फुले की सुप्रसिद्ध रचना ‘किसान का कोड़ा’ को समर्पित था।
कार्यक्रम में तीन वक्ता थे- वरिष्ठ कृषि अर्थशास्त्री जया मेहता, कथाकार-विचारक रणेन्द्र और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव आंदोलनकर्मी वीजू कृष्णन। कार्यक्रम का संचालन एक्टिविस्ट-लेखक सुभाष गाताडे ने किया और तकनीकी व्यवस्था साथी प्रेमशंकर ने संभाली।
फसल चक्र की बर्बादी और भूख का विस्तार
अपने वक्तव्य में जया मेहता ने कहा कि दिल्ली की सरहदों पर बैठे किसान, महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे कृत-संकल्प हैं कि जब तक तीनों जनद्रोही क़ानून वापस नहीं होते, वे यहाँ से नहीं जाएंगे। उन्होंने कहा कि लड़ाई लंबी है और कृषि संकट को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़कर देखना चाहिए। बहुत से लोगों ने धारणा बना ली है कि अगर ये तीनों क़ानून रद्द कर दिए जाते हैं तो किसानी का संकट दूर हो जाएगा। यह सही नहीं है। संकट पहले से चला आ रहा है। 1995 से किसानों की आत्महत्या की चर्चा चल रही है। 1991 में भारत सरकार ने आइएमएफ से कर्ज लेकर ‘स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट’ किया। आयात-निर्यात की नीति बदली गई। बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में बदलाव किए गए। लघु और सीमांत किसानों को मिलने वाली सब्सिडी ख़तम की जाने लगी। इस नई आर्थिक नीति में, निजीकरण की मुहिम में, कृषि संकट के कारण मौजूद हैं।
कुछ लोग दावा करते हैं कि नई आर्थिक नीति अगर परिवर्तित कर दी गई तो संकट टल जाएगा। यह भी सही नहीं है। संकट की जड़ें बड़ी गहरी हैं। औपनिवेशिक युग में किसानों के शोषण का नया दौर आरंभ होता है। ‘किसान का कोड़ा’ में फुले ने किसानों के जिस शोषण की बात की है उसका संबंध यहाँ की समाज व्यवस्था से है। फुले ने जातितंत्र से, पितृसत्ता से और अशिक्षा से मुक्त होने पर जोर दिया था। इन समस्याओं से कितनी मुक्ति हो पाई है? आज भी ये समस्याएं बनी हुई हैं।
व्यापार के लिए आई ईस्ट इंडिया कंपनी प्लासी युद्ध (1757) के बाद राजा बन गई। सन 1764 में कंपनी को दिल्ली दरबार से टैक्स वसूलने का अधिकार मिला। उसने भू-राजस्व 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 50% कर दिया। सन 1770 में बंगाल में अकाल पड़ा। कंपनी की वसूली तब भी पूरी क्रूरता से जारी रही। सूखा-बाढ़-बीमारी का कंपनी पर कोई असर नहीं होता था। साम्राज्यवाद का चरित्र ही ऐसा है। उस दौर के अकालों में कहीं पचास लाख लोग मर रहे थे कहीं एक करोड़ लोग। कंपनी की उगाही किसी भी दशा में रुकती नहीं थी। फुले ने ‘किसान का कोड़ा’ में यह दर्शाया है कि ब्रिटिश साम्राज्य की ब्यूरोक्रेसी ब्राह्मणों के हवाले थी। देश की सारी संपत्ति, सारा अधिशेष लंदन भेजा जा रहा था। जनता की दुर्दशा में इस तरह इज़ाफ़ा हो रहा था।
आज साम्राज्यवाद का स्वरूप बदल गया है। शोषण का पुराना तंत्र बदल चुका है। वह पहले से अधिक सूक्ष्म और सुगठित है। ऐसे अदृश्यप्राय शोषणतंत्र के विरुद्ध संघर्ष भी इसलिए पहले की अपेक्षा बहुत कठिन हो गया है। आज भी यूरोप और अमेरिका के द्वारा विकासशील देशों का धन लूटा जा रहा है। आप किसानों को, किसान नेताओं को सुनिए। वे कभी नहीं कहते कि हमारी लड़ाई सिर्फ मोदी से है। वे विश्व व्यापार से, कॉर्पोरेट से जूझने की बात करते हैं।
फुले के अनुसार अंग्रेजों ने जो स्ट्रक्चर खड़ा किया उसमें सवर्ण थे, ब्राहमण थे। उनकी निष्ठा अपने देश के प्रति नहीं, आकाओं के प्रति थी। आज की चुनी हुई सरकार की निष्ठा भी अपने देश के प्रति नहीं है। वह कॉर्पोरेट के प्रति लॉयल है। उनकी मिडिलमैन है। जनता का धन लूटकर वह वहाँ पहुँचा रही है जहाँ पहले से ही इफ़रात संपत्ति है। इसलिए लड़ाई बड़ी है। यह पूरे विश्व के इकॉनोमिक स्ट्रक्चर से है।
चंपारण सत्याग्रह का उल्लेख करते हुए जया मेहता ने कहा कि विश्व बाज़ार के नियंता चाहते हैं कि किसान वह उगाएं जो सम्पत्तिवान लोग चाहते हैं। उन्होंने तब भी भारत के फसलचक्र में बदलाव किया था और उसे यूरोप की इंडस्ट्री के अनुसार बनाया था आज भी वे ऐसा ही कर रहे हैं। वे हमारी फ़ूड सिक्यूरिटी को तबाह करके हमें बाज़ार के रहमो-करम पर छोड़ना चाहते हैं। हम ऐसा क्यों होने दें? तीनों कृषि क़ानून हमारी खाद्य-सुरक्षा पर हमला हैं।
कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग से किसानों की बार्गेनिंग क्षमता नष्ट करने, जुडीसियरी तक जाने का अधिकार छीनने, उन्हें बाज़ार की (संपन्नों की) मांग के मुताबिक फसल उगाने को बाध्य करने का पक्का इंतज़ाम इन कृषि कानूनों में है। किसान जानते हैं कि एक बार मंडी व्यवस्था ख़त्म हुई तो सरकार द्वारा अनाज की खरीदी, भंडारण, सार्वजनिक वितरण प्रणाली सब बंद हो जाएंगे। सरकार के इस आश्वासन पर किसानों को कतई यक़ीन नहीं है कि मंडियां बंद नहीं की जाएंगी। सरकार अपनी जिम्मेदारी कॉर्पोरेट को सौंपना चाहती है। एक बार कॉर्पोरेट का, वर्ल्ड मार्केट का कब्ज़ा हुआ तो न्यूनतम समर्थन मूल्य, प्रोक्योरमेंट, पीडीएस, सस्ते दर पर गरीबों को अनाज आदि सभी मांगें हमेशा के लिए दफ्न हो जाएंगी।
किसानों को इसका अंदाज़ है। पंजाब सहित कई राज्यों के छोटे-बड़े किसान इस आंदोलन में शरीक हैं लेकिन इसमें महिलाओं, विद्यार्थियों, मजदूरों, दलितों की भी उल्लेखनीय भागीदारी है। यह यूनिटी बहुत बड़ी बात है। यह एकता बनी रहे तभी वे कॉर्पोरेट के विरुद्ध संघर्ष कर सकेंगे। इस यूनिटी को बनाए रखना किसान आंदोलन के सामने बहुत बड़ी चुनौती है।
खेती का संकट सिर्फ खेती में सुधार करके नहीं हल होगा। जैव विविधता की रक्षा करके, पर्यावरण की चिंता करके, सबको शिक्षा सबको काम सुनिश्चित करके अर्थात पूरी प्रणाली की, पूरी अर्थव्यवस्था की रैडिकल रिस्ट्रक्चरिंग करके ही संकट का समाधान निकल सकता है।
जरूरी है कि छोटी जोतों वाले किसान अपने खेत मिलाकर साझी खेती की शुरुआत करें। कोआपरेटिव बनाए जाएं। खेत मजदूरों के रोज़गार का पुख्ता इंतज़ाम किया जाए। कृषि संकट सतत प्रयत्नों और मुकम्मल प्रावधानों से ही हल है।
सिर्फ एमएसपी पर नहीं, हमला गरीब के राशन पर भी है
कार्यक्रम के दूसरे वक्ता रणेन्द्र ने जया मेहता से सहमति जताते हुए कहा कि किसानों अथवा किसानी का संकट आज का नहीं है। सिक्खों का आंदोलन किसानों का आंदोलन है। दसवें गुरु के बाद बंदा बहादुर आए। उन्होंने बड़े जमींदारों से जमीनें लेकर भूमिहीनों को दिया। 1709 में उन्होंने घोषणा की कि जमींदारी प्रथा की अब कोई जरूरत नहीं। यह बड़ा प्रगतिशील वाकया था। आज का किसान आंदोलन उस विरासत का भी वारिस है।
1765 में ईस्ट इंडिया को रेवेन्यू कलेक्शन का अधिकार मिला। कंपनी ने सारे बंगाल को, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, असम को लगान वसूली की प्रयोगशाला बना दिया। इसके विरोध में जगह-जगह किसानों के आंदोलन उभरे। झारखंड और उसके आसपास पहाड़िया विद्रोह, कोल, मुंडा, उरांव, संथाल हूल ये सब किसानों के ही विद्रोह हैं। आगे बढ़ें तो तेलंगाना के किसानों का संघर्ष, महाराष्ट्र के बागड़ी आदिवासियों का संघर्ष दिखाई देते हैं। त्रावनकोर, असम, बंगाल, त्रिपुरा में अलग-अलग नामों से किसान संघर्ष उभरते हैं। आज का किसान आंदोलन इन सारे उलगुलानों का उत्तराधिकारी है। हम इसे सलाम करते हैं।
ब्रिटिशकाल के इन विद्रोहों, आंदोलनों का परिणाम यह हुआ कि 1947 के बाद भारत सरकार और राज्य सरकारों के एजेंडे में भूमि-सुधार का मुद्दा शामिल हुआ। 1950 में उस दबाव के कारण केंद्र सरकार ने सरप्लस लैंड की निशानदेही के लिए एक कमेटी बनाई। कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक अलग-अलग राज्यों ने भूमि सुधार के क़ानून बनाए। कमेटी ने कुल छः करोड़ तीस लाख एकड़ सरप्लस लैंड की शिनाख्त की। जब इस सरप्लस जमीन को दलितों, आदिवासियों, गरीबों, खेत मजदूरों में बांटने की बात आई तो कुल तिरपन लाख एकड़ ज़मीन ही बांटी जा सकी। सरप्लस जमीन पर जिनका कब्ज़ा था उनके लोग ही प्रशासन में थे, विधायिका में थे, सरकार में थे। उन्होंने ज़मीन भूमिहीनों में बंटने ही नहीं दी!
अभी कुल सात प्रतिशत किसान ही हैं जो अपनी उपज मार्केट में बेच सकते हैं। बाकी चालीस प्रतिशत के पास जमीन ही नहीं है। चालीस प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो साल भर अपने खाने का अन्न उगा लें, यही बहुत है। सरप्लस लैंड के आंकड़े की हवा निकाल दी गई तो हम ताबेदारी के लिए मजबूर हो गए। भारत सरकार ने अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया से करार किया और वहाँ से हमारे खाने के लिए लाल गेहूं आया। सरप्लस लैंड वितरित हो गई होती तो यह नौबत न आती।
जिसको हम हरित क्रांति कहते हैं वह पूँजी आधारित खेती थी। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में यह खेती सफल रही। बिना भूमि सुधार किए हरित क्रांति आ गई। सिंचाई, ट्रेक्टर, थ्रेशर, उर्वरक पर अनुदान मिला। अनाज की सरकारी खरीदी हुई। गोदाम बने। भंडारण हुआ। सरकार को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होना था तो यह सब इंतज़ाम किए गए। इसके बाद सरकार ने सब्सिडी से अपने हाथ खींचने शुरू किए। क़र्ज़ माफ़ी का फ़ायदा बड़े किसानों तक सिमट गया। उर्वरक निर्माता कंपनियां सब्सिडी का लाभ पाने लगीं। सीमांत और भूमिहीन किसान बर्बाद होते गए। ऐसे तीन लाख छोटे किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।
हमें ऊँची जातियों, जागीरदारों, जमींदारों का वर्चस्व हटाकर आगे बढ़ना था। हम आत्महत्या के रूट्स को पहचानें तभी कृषि संकट से निकल पाएंगे। 1990 के बाद तो कोई भूमि सुधार की बात ही नहीं कर रहा है। सरप्लस लैंड के वितरण की बात ही ठप्प है। अब उस जमीन को बड़े उद्योगपतियों, कॉर्पोरेट घरानों, मल्टीनेशनल को दिए जाने की बात हो रही है।
सिंचित जमीन का रकबा बढ़ना चाहिए था वह नहीं हुआ। पूर्वी भारत के बीमारू राज्यों में सिंचित जमीन 20-25 प्रतिशत से ऊपर नहीं है और अब इसकी कोई चिंता भी नहीं कर रहा है।
अब किसानों को हाइब्रिड बीज, उर्वरक, कीटनाशक सब मल्टीनेशनल कंपनी से खरीदने को बाध्य किया किया जा रहा है। इसे किसानों की आत्महत्या से जोड़कर देखिए। किसानों को मोंसेटो, करगिल, प्रो-एग्रो आदि कंपनियों के हवाले कर दिया गया है। उन्हें बीज निर्माण के लिए जमीनें दी जा रही हैं। केंद्र सरकार के बजट का कितना हिस्सा कृषि को दिया जाता है? यह क्षेत्र कितना रोजगार देता है? पचास प्रतिशत रोज़गार और बीमारू राज्यों में तो 84 प्रतिशत रोजगार कृषि क्षेत्र देता है! औसतन 56% रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र को केंद्रीय बजट केंद्र का 1.3% ही मिलता है!
किसान आंदोलन के लिए यह भी एक चुनौती है कि बजट का कम से कम दस प्रतिशत कृषि को दिलवाया जाए। देखिए, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ? ‘
कहाँ तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
स्वामीनाथन आयोग ने लागत में 50% जोड़कर लाभकारी मूल्य तय करने का सुझाव दिया था। अब लाभकारी मूल्य तो छोड़िए, न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है! ऐसे में हमें एमएसपी पर नहीं अटकना चाहिए बल्कि लाभकारी मूल्य की मांग करनी चाहिए। और, इसके साथ मंडी, जनवितरण प्रणाली तथा भारतीय खाद्य निगम को जोड़ना चाहिए। तब बात आगे बढ़ेगी।
1964 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) की स्थापना चार उद्देश्यों के तहत हुई थी- क) किसानों की उपज का समुचित मूल्य उपलब्ध कराना, ख) जन वितरण प्रणाली के माध्यम से अन्न को अवाम तक पहुँचाना, ग) राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से अनाज का बफ़र स्टॉक सुरक्षित रखना और घ) खुले बाज़ार में खाद्यान्नों की कीमत नियंत्रित रखना। अब ये चार उद्देश्य 1991 के अग्रीमेंट के, विश्व व्यापार संगठन के प्रतिकूल जा रहे हैं।
तो, पहले सार्वजनिक वितरण प्रणाली का क्षरण शुरू होता है। कहा गया कि यह अनाज गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों को ही मिलेगा। फिर हुआ कि सब्सिडी को डायरेक्ट ग़रीब के खाते में ट्रांसफर करेंगे। ये चीजें यूं ही नहीं हो रही हैं। इनके पीछे अंतरराष्ट्रीय इकॉनोमी काम कर रही है। ग्लोबल इम्पीरियलिज्म की ताकतें काम कर रही हैं। अ
निवार्य वस्तु अधिनियम 1920 में बदलाव करके कृषि उत्पादों को उससे बाहर कर दिया गया। अब प्राइवेट प्लेयर्स इन खाद्यान्नों का भंडारण कर सकते हैं। लाखों मीट्रिक टन खाद्यान्न अपने वृहदाकार गोदामों (सायलो) में रख सकते हैं। अब वही होगा जो पेट्रोलियम पदार्थों का हुआ है, हो रहा है।
खाते में जो दो हज़ार रुपये आते हैं उनसे पंद्रह दिन भी पेट नहीं भरा जा सकता। चावल, गेहूं, दाल की कीमत जब बाज़ार तय करेगा तो सरकार चाह कर भी कुछ नहीं कर पाएगी। यह पहले मैक्सिको में घटित हो चुका है।
अगर किसान आंदोलन बड़े अवाम को जोड़ना चाहता है तो इन बिन्दुओं को फोकस करके बताना होगा। एमएसपी तक सीमित रहने से काम नहीं बनने वाला।
इस आंदोलन की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसने सरकार के बनाए सारे नैरेटिवों को तोड़ा है। पृथकतावाद, आतंकवाद, माओवाद क्रमशः इन सबसे किसान आंदोलन को जोड़ने की कोशिश की गई और किसानों ने इन सब नैरेटिव को विफल किया।
दूसरी बात कि उन्होंने समांतर मीडिया खड़ा किया। जिन पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहाँ अगर आंदोलन के लोग मुद्दों को लेकर जाते, अपनी बात रखते तो चुनाव की सूरत बदल सकती थी। न्यूनतम समर्थन मूल्य तक सीमित रहने से शहरी और ग्रामीण ग़रीब, मेहनतकश अवाम को नहीं जोड़ा जा सकेगा। किसान आंदोलन को चाहिए कि वह वर्ग और जाति के विभेद को, दलितों, दलित महिलाओं की समस्याओं को एड्रेस करे। खाप पंचायतों के रवैये पर भी विचार हो।
कार्पोरेट कृषि बनाम सहकारी खेती
कार्यक्रम के तीसरे और अंतिम वक्ता वीजू कृष्णन ने तमाम आंदोलनों में अपने तीस वर्षीय अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में इस किसान आंदोलन को अभूतपूर्व बताते हुए कहा कि पिछले सात वर्षों में एक लाख किसानों ने आत्महत्या की है। इस संख्या में बटाईदार-भूमिहीन किसान, महिला किसान, खेतिहर मजदूर दलित किसान शामिल नहीं हैं।
मोदी ने 2014 के चुनाव में किसानों से बड़े लुभावने वायदे किए थे कि उनकी आय दोगुनी हो जाएगी, उनकी लागत का डेढ़ गुना दाम मिलेगा, कृषि संकट ख़तम हो जाएगा, सिंचाई की अच्छी व्यवस्था की जाएगी, भरपूर सब्सिडी मिलेगी, क़र्ज़ माफ़ी होगी, प्राकृतिक व अन्य आपदा में बीमा दिया जाएगा…। इन वायदों के चलते किसानों और खेत मजदूरों ने उन्हें वोट दिया, उन्हें जिताने में भूमिका निभाई।
हरियाणा और महाराष्ट्र ऐसे राज्य रहे हैं जहाँ आज़ादी के बाद भाजपा कभी अकेले अपने दम पर चुनाव नहीं जीत पायी थी। 2014 में इन दोनों राज्यों में इन लुभावने वायदों के बल पर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है।
केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद एक हफ्ते के अंदर हम कृषिमंत्री से मिले और उनसे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों का सिर्फ़ एक पॉइंट उत्पादन खर्च से डेढ़ गुना दाम लागू करने की बात की। कृषिमंत्री ने हमसे कहा कि कि आप इसे इतनी गंभीरता से क्यों ले रहे हैं! वह तो चुनावी वायदा था जो हर पार्टी करती है। भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हलफ़नामा देकर कहा कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू नहीं हो सकती हैं।
उसी समय सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लेकर आयी। इसमें किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीन ले लेने की बात थी। इस अध्यादेश के विरुद्ध लोग एकजुट हुए। बहुत से संगठनों में एकता बनी। वह मुद्दा आधारित एकता इस आंदोलन में देखी जा सकती है।
बहुत से लोग इसे स्वतःस्फूर्त आंदोलन कहते हैं जबकि इसके पीछे एक सुचिंतित प्रयास है। संगठनों की पहली बैठक गाँधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में हुई थी। एक प्रस्ताव आया कि डॉ. आंबेडकर के संविधान/संवैधानिक मूल्यों के तहत आंदोलन चले। इस प्रस्ताव पर कुछ लोग उठकर चले गए। मेधा पाटेकर ने कहा कि गाँधी के आदर्शों के अनुसार आंदोलन चले। इस प्रस्ताव पर भी कुछ लोग चले गए। संगठनों में दो मुद्दों को लेकर सहमति बनी- फसल का लाभकारी दाम और कर्जा मुक्ति।
2014 से 2019 तक हम संगठनों का लगातार आंदोलन चला। हमारा लांग मार्च हुआ। नासिक से मुंबई तक। इसमें जमीन अधिकार का मुद्दा, वनाधिकार का मुद्दा, खाद्य सुरक्षा का मुद्दा तथा सोशल वेलफेयर का मुद्दा था। इस लांग मार्च में हज़ारों किसान शामिल रहे जिसमें आदिवासी किसानों की अच्छी संख्या थी। यह मार्च बड़ा स्फूर्तिदायक रहा।,इसके बाद 5 सितंबर 2018 को दिल्ली में किसान मुक्ति मार्च का आयोजन हुआ। यह मुक्ति मार्च ढाई सौ से अधिक संगठनों वाले अखिल भारतीय किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमेटी के नेतृत्व में हुआ। इसमें महिला संगठनों, दलित संगठनों, छात्रों, पत्रकारों, लेखकों, शिक्षकों, आदिवासियों और श्रमिक संगठनों की हिस्सेदारी रही। इसमें सेना के सेवानिवृत्त सेनानी भी जुड़े। दो लाख से अधिक लोगों ने इसमें शिरकत की। यह यादगार कार्यक्रम था।
2019 में राष्ट्रवाद के शोर, ध्रुवीकरण की राजनीति और कॉर्पोरेट मीडिया के बल पर मोदी सरकार फिर से जीती। 2014 में जो वायदा किया था उसमें एक भी पूरा नहीं किया था। किसानों की आय दोगुनी करने का वायदा हो या बेरोजगारों को प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियाँ देने का वायदा।
मोदी ने 2020 मार्च महीने में जो लॉकडाउन लगाया उस समय किसान अच्छी फसल की प्रतीक्षा कर रहे थे। कटाई का समय शुरू हो रहा था। इस लॉकडाउन ने किसानों का, मजदूरों का और खेतिहर श्रमिकों का भरपूर नुकसान किया। सरकार से हमने मांग की कि इन समुदायों को आर्थिक सपोर्ट मुहैया कराए, कर्जमाफ़ी करे, मजदूरों को खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित करे। इसी समय सरकार ने बड़े कॉर्पोरेट के एक लाख करोड़ का कर्जा माफ़ किया था।
सरकार ने हमारी मांग नहीं मानी। न उचित कीमत की बात और न कर्जमाफी की। ऊपर से जून महीने में तीन अध्यादेश लेकर आई। सरकार ने कहा कि 1947 में जब देश आज़ाद हुआ था तब किसानों को आज़ादी नहीं मिली थी। ये क़ानून किसानों को आज़ाद करेंगे। अब किसान जहाँ चाहेंगे, अपनी फसल बेच सकेंगे। हम लगातार आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे थे सरकार ने लॉकडाउन का सहारा लेकर कॉर्पोरेट रूल का रास्ता बना दिया।
कर्नाटक में भाजपा की सरकार है। येदुरप्पा से पहले जो भाजपा सरकार थी उसने कृषि क्षेत्र में व्यापार को बढ़ावा देने के लिए एक प्लान बनाया था। इसे इंटीग्रेटेड एग्रीड बिज़नस डेवलपमेंट कहा गया। इसमें किसानों से लांग लीज़ पर दो हज़ार एकड़ जमीन लेकर ऐसा पर्यटन स्थल बनाने की बात थी जहाँ विदेशी टूरिस्ट अपने हाथों से गायों, बकरियों को चारा खिला सकेंगे, बैलगाड़ी की सवारी कर सकेंगे और किसान संस्कृति को म्युज़ियम की तरह देखकर आनंद उठा सकेंगे।
यह खेती-किसानी को लेकर भाजपा का नजरिया है। कांग्रेस का, मनमोहन-चिदंबरम का नज़रिया भी इससे बहुत भिन्न नहीं था। वे भी कहते थे कि कृषि क्षेत्र में बहुत से लोग हैं। उन्हें वहाँ से निकालना चाहिए।
मोदी सरकार जो तीन कानून लेकर आई वह मंडी तोड़ो, कॉर्पोरेट लूट बढ़ाओ, जमाखोरी व कालाबाजारी कराओ और कॉर्पोरेट खेती लाओ क़ानून है। यह आइएमएफ, विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन के दबाव का प्रतिफल है। सब्सिडी ख़तम करके खेती को पूरी तरह से कॉर्पोरेट को सौंपने की यह तैयारी है।
विभिन्न संगठनों ने मुद्दों के आधार पर जो एकता क़ायम की थी उसके बल पर तीन कानूनों के विरुद्ध आंदोलन चल रहा है। ये क़ानून वापस हों, उत्पादन लागत का डेढ़ गुना दाम मिले यह आंदोलनकारियों की मांग है। कुछ लोग कहते हैं कि समर्थन मूल्य की मांग कुलक या बड़े किसानों की हित-साधक है। इसे समझने की जरूरत है। सभी राज्यों में जो अलग-अलग उत्पादन लागत है उसका औसत निकालकर समर्थन मूल्य तय किया जाता है। अभी सरकार इस न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदारी नहीं करती है। मंडी व्यवस्था ख़त्म करने के बाद तो ख़रीदारी का प्रश्न ही नहीं उठेगा।
अभी धान का समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 1868 रुपया है। बिहार में सरकार ने 2006 में मंडी व्यवस्था ख़त्म कर दी थी। वहाँ के किसान 800 से लेकर 1200 में धान बेचते हैं। केरल में जहाँ वाम-जनवादी मोर्चे की सरकार है वहाँ 2800/- में एक क्विंटल धान खरीदा जाता है। पूरे देश में इस दाम पर और कहीं खरीदी नहीं है। वहाँ की सरकार ऐसा क्यों कर रही है? इसे हम समझते हैं। वहाँ उत्पादन खर्च भी ज्यादा है। अगर आप वहाँ केंद्र सरकार के समर्थन मूल्य पर धान खरीदेंगे तब भी किसान घाटे में रहेंगे। इसीलिए सरकार वहाँ कीमत में हस्तक्षेप कर रही है। पंजाब में प्रति क्विंटल उत्पादन खर्च 2400 रुपया है। ऐसा वहाँ की सरकार कहती है। उधर केंद्र सरकार का दावा है कि पंजाब में धान का प्रति क्विंटल उत्पादन खर्च 1100/- है। राज्य सरकार के दावे से आधे से भी कम पर। कहने का मतलब यह कि हर राज्य का उत्पादन खर्च अलग-अलग है। दावे भी अलग-अलग। अधिकांश राज्यों में उत्पादन खर्च समर्थन मूल्य से अधिक है। आज की तारीख में पंजाब, हरियाणा जैसे 2-3 राज्यों में ही समर्थन मूल्य पर खरीदारी होती है।
हमारी मांग है कि समर्थन मूल्य का निर्धारण ठीक से हो और समूचे भारत में उसी मूल्य पर खरीदारी हो। किसानों के लिए लाभकारी खरीदारी सुनिश्चित की जाए। फसलों के साथ वनोपज वस्तुओं की भी खरीदारी समर्थन मूल्य के अनुसार हो। उसका भी समर्थन मूल्य घोषित किया जाए। लेकिन, सरकार इस क्षेत्र को पूरी तरह कॉर्पोरेट को सौंपने पर तुली हुई है। कई राजनीतिक दल खासकर वामपंथी पार्टियां 1991 से इसका विरोध करती आ रही हैं।
1993 में अखिल भारतीय किसान सभा ने वैकल्पिक कृषि नीति तैयार की। इसमें किसान और किसानी को बचाने की योजना है। फसलों के क्रय और भंडारण, कीमत निर्धारण को कॉर्पोरेट के हाथ में सौंपने की जिम्मेदारी इस सरकार ने अपने हाथ में ले रखी है। खाद, बीज, कीटनाशक पर कॉर्पोरेट का एकाधिकार लगभग हो चुका है। अभी दो दिन पहले ही उर्वरक के दामों में 40 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। उत्पादन लागत में लगातार वृद्धि हो रही है लेकिन फसल की वाजिब कीमत किसान को नहीं मिल पा रही।
कृषि संकट गहराता जा रहा है। किसान लगातार क़र्ज़ में डूब रहा है। अखिल भारतीय किसान सभा हो या दूसरे संगठन, आज का किसान आंदोलन इस स्थिति से उबरने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। किसान और मजदूर वर्ग में एकता मजबूत हुई है। मजदूर तबके की इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी दिखाई दे रही है। हम इस भ्रम में नहीं हैं कि इन तीन कानूनों के वापस होते ही भारत में किसान खुशहाल हो जाएंगे। एक वैकल्पिक नीतियों की ज़रुरत है। वैकल्पिक नीति की ज़रूरत सिर्फ कृषि क्षेत्र में नहीं बल्कि रोज़गार, शिक्षा, सामाजिक क्षेत्र, स्वास्थ्य आदि सभी में है। वैकल्पिक अर्थनीति, समाजनीति, राजनीति के लिए हमारा संघर्ष, हमारा आंदोलन जारी रहे।
तीनों वक्तव्यों के बाद संक्षिप्त चर्चा-सत्र रखा गया। इस कार्यक्रम में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, जीवन सिंह, हेमलता महिश्वर, रेखा अवस्थी, संजीव कुमार, विनीत तिवारी, विमल थोरात, हीरालाल राजस्थानी, आशुतोष कुमार, फरहत रिज़वी, राजेन्द्र कुमार, प्रेम तिवारी, रवि निर्मला सिंह, रज़ा, फ़िरोज़ आलम, संजय जोशी, अभय कुमार, दिव्या, अजय कुमार आदि लेखक-कार्यकर्ता-कलाकार-शिक्षक-शोधार्थी उपस्थित रहे।